कथित बाबा बनाम भारतीय सांस्कृतिक विरासत

''बाबा रे बाबा'' ये कैसा बवाल समय दर समय कथित धूर्त बाबाओ की पोल खुल रही है, भारतीयो को जो संस्कृति विरासत में प्राप्त हुई है;क्या वह थोथी थी? क्या भारतीय समाज इतना आगे बढ़ चूका है की इन रामपाल जैसे पाखंडियो को भगवान का दर्जा देने लगा है? यह कहना अतिशयोक्ति नही होगा की इसके लिए भारतीय समाज और कानून व्यवस्था भी उतनी ही उत्तरदायी है जितने की ये बाबा और उनके समर्थक। कुछ समय पहले दक्षिण भारत का वाकया सामने आया वह संत और पंथ के साथ पाखण्ड का स्वांग रचाये हजारो महिलाओ की आबरू से खेलता रहा; एक बाबा तो कचोरी पकौडी खाने की सलाह मात्र से इलाज करने लगा और दिन प्रतिदिन टीवी चैनलो पर शोभा पाता रहा है, आशाराम कथा वाचक से कब गुरु,बापू बन गया और वासना, झडिबुटिया , कालाधन के साथ मासूम बच्चीयो तक को अपने हवस का शिकार बनाता रहा। अब कथित संत रामपाल का शर्मनाक चेहरा सामने आया है जो 12 एकड़ भूखण्ड में आपना साम्राज्य बना के ठग रहा था, हथियारो-अपनी फ़ौज, धन व मौज के नशे में चूर यह बाबा इतना ताकतवर हो चूका था की हमारी कार्यपालिका व न्यायपालिका से बात करने लगा था।

      प्रश्न यह उठता है की कई लोगो को मंदिर में नही घुसने दिया जाता था यदि उन्होंने किसी को भगवान मान लिया तो वें दोषी नही? हजारो धूर्त रामपाल ऐसे लोगो की आस्था से खिलवाड़ करते है, और आडम्बरों की दूकान चल पड़ती है। प्रश्न उठता है की इन पर पहली रिपोर्ट पर ही कार्यवाही क्यों नही की जाती? यह आईपीसी और अन्य प्रक्रिया क्यों? क्यों इन्हें सजा मिलने में समय इतना अधिक लग जाता है? क्या इसका कारण यह माना जाये की भारतीय राजनितिक संस्कृति जो की सामजिक व्यवस्थाओ पर टिकी है वह इन्हें प्रोत्साहन देती है? इनके समर्थको के वोटो को प्राप्त करने के लिए इन्हें सुख सुविधाये और क़ानूनी बचाव में साथ देती है? 2006 की झड़प का मामला 2014 के अंत में पूरा हुआ जब हरियाणा में खट्टर मुख्यमंत्री बने। उनकी सूझबूझ और जनहित सोच का ही नतीजा है की रामपाल आज जेल में है। वर्ना रामपाल ने तो गिरफ्तारी से बचने के लिए कायरता से अबला महिलाओं और मासूम बच्चों को ढ़ाल बना व्यूह रच चूका था।

                     भारतीय मिडिया आज की मानसिक थकान से परेशांन युवा पीढ़ी को क्या परोस रही है ? प्रातः काल टीवी पर बाबाओ का राज मिलता है; यह पहनो ऐसा करो-वैसा करो, इससे यह लाभ होगा प्रकार से बाबा लोग युवा पीढ़ी को अपनी और आकर्षित किये जा रहे है। यह कहना उचित नही होगा की ऐसे आकर्षणों पर प्रतिबंध लगाओ; यह उनकी मौलिक स्वतंत्रा का उल्लंघन होगा। लेकिन क्या संविधान और कानून में कुछ अनुबंध करने की आवश्यकता नही है? क्या ये दुकाने हमारे संविधान से ऊपर है? अब क्रांतिपूर्ण बदलाव की आवश्यकता है नियमो में कठोरता और पुलिस और अदालतों की प्रक्रिया को तेज करने की आवश्यकता है , ताकि फिर से ऐसा साम्राज्य खड़ा न हो पाये।

         भारतीय समाज को भी समझना चाहिए की संत तो निर्मिल होता है करुणा का स्वरूप होता है जनकल्याण की भावना और महिलाओ का आदर करने वाला होता है । अतः संत वही है जो संत-पंथ-ग्रंथ से ऊपर जन परोपकार को आंगिकार करता हो।

        धूर्त्त पाखण्डी के दंशो को उन सच्चे संतो को भी झेलना पड़ता है। एक और पांच सितारा पाखण्डी संत और दूसरी और तपस्या में लीन संत जो प्रभु की सत्ता मानता हो और स्वयं को दास; उन्हें भी जिल्लत भरी निगाओ से देखा जाता है।

''मेरा मानना है की संतो पर ग्रेशम का नियम लागू होता है''
  जिस तरह बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है वेसे ही बुरे संत अच्छे संतो को बाहर करते जा रहे है जिनकी मिशाल रामपाल जैसे लोग पेश कर रहे है और हम तमाशबिन की तरह नए तमाशे के इन्तजार में खड़े है!

वाह रे समाज !
  '' जिन्हीने मूर्ति पूजा का विरोध किया, लोगो ने उन्ही की मूर्ति बना डाली''
        आज एक बाबा पकड़ा गया लोग नए बाबा बना लेंगे । लेकिन ये रामपाल जैसे बाबा अकेले नही धर्म का कारोबार, लोगो की आस्था से खिलवाड़ और धर्म की आड़ में गैर कानूनी कार्यो में लगे उन जैसे अनेक संत, बापू ,स्वामी, महाराज, मौलवी और खादिम है जो कानून की आँख में धूल झोंक रहे है। जरूरत है तो स्पष्ट नियमो, की कानूनों की, स्वतंत्र पुलिस निर्णयन की ।

इसी चर्चा के साथ अपने शब्दों को विराम् देना चाहता हु आपने इस आलेख को पढ़ा इस हेतु धन्यवाद ।

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