संसदीय लोकतंत्र, दल-बदल और ससदीय सदस्यता (चर्चा)

मुद्दा दल बदल का और प्रशासनिक दृष्टिकोण

संसदीय लोकतंत्र, दल-बदल और ससदीय सदस्यता (चर्चा)
source: patrika; दल बदल की राजनीति

दल बदल के उपबंध संविधान के लागु होने के साथ नही थे बल्की इन्हें बाद में संशोधन के द्वारा संविधान में जोड़ा गया यथा 52 वें संविधान संशोधन अधिनियम,1985 द्वारा दल-बदल को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया एवं अनुच्छेद 101, 102, 190 व 191 में परिवर्तन के साथ 10 वीं अनुसूची जोड़ी गई। 91 वें संविधान संशोधन अधिनियम,2003 द्वारा 10 वीं अनुसूची में संशोधन करते हुए 'दल-बदल' एवं 'दल के विखण्डन' का अंतर समाप्त कर दिया गया । कुछ अपवादों के साथ दल बदल करने पर जन प्रतिनिधि की संसद से सदस्यता समाप्त की जाती है।

            आलोचकों द्वारा इसे थोपा गया कानून कहा जाता है  वे इसे अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का खण्ड़न के पर्याय मानते  है तथा इस हेतु तर्क दिया जाता है की भारतीय संविधान में प्रजातांत्रिक मूल्यों एवं सिद्धान्तों को विशेष महत्व प्रदान किया गया है। लोकतान्त्रिक चुनाव प्रक्रिया द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधि को विशेषाधिकार (संसदीय) प्रधान किया जाता है । वह क्षैत्र के जनसमूह की आवाज माना जाता है; जनता की अपेक्षा होती है की वह उनकी अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करेगा । यदि जन प्रतिनिधि व्यक्तिगत या वैचारिक कारणों से अन्य दल की सदस्यता लेता है तो संसदीय सदस्यता समाप्त कर दी जाती है। चुनाव में उम्मीदवार दल प्रतिष्ठा से ही नही वरन्  चरित्र, योग्यता , जननिष्ठा व कर्तव्य परायणता पर जीतता है। अतः दलीय सदस्यता भंग किया जाना उचित है; संसदीय सदस्यता नही । यह  लोकतान्त्रिक अधिकार मतदाताओ का है (वापस बुलाने का)।

                   विभिन्न तर्को के बावजूद यह भी नकारा नही जा सकता की सांसद द्वारा द्वेष वश दल बदलने पर मजबूत सरकारो का ह्रास होता है तथा सरकार अल्प बहुमत में आ सकती है जो लोकतान्त्रिक मूल्यो को ही क्षति नही पहुँचाती बल्कि सरकार के निर्णयन क्षमता में भी कमी लाती है जो देश को आंतरिक एवं शेष विश्व के साथ विकास की प्रतिष्पर्धा में पिछड़ा बना सकती है। संविधान समीक्षा आयोग ने इसे लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया है अतः कुछ सुधार (दल बदल पर निर्णय चुनाव आयोग को सौंपा जाए आदी) के साथ इसे लागु किया जाना जन भावनाओ को ठेस पहुचना नही होगा।

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